छवि ‘माँ’ की धूमिल करते जो -‘पाप’ कर रहे सौ-सौ
( फोटो साभार और धन्यवाद के साथ अन्य स्रोत से लिया गया )
ओ ‘माटी’ के 'लाल' हमारे
'शक्ति' रूपिणी 'नारी'
आओ ‘हाथ’ बढाओ अपना
‘चीख’ सुनो हे भाई
‘माँ’ ने तुम्हे पुकारा है अब
‘रखवाले’ सब आओ
छवि ‘माँ’ की धूमिल करते जो
‘पाप’ कर रहे सौ-सौ
कोई नोच -खसोट रहा है
‘महल’ बनाये नौ -सौ
कहीं एक ‘भूखा’ मरता है
‘बिन व्याही’- ‘बेटी’ बैठी
फटी -धरा है
बीज -नहीं है
मरा ‘कृषक’ ले ‘कर्ज’ कहीं है
‘विधवा’ घर ‘रोती’ बैठी
भरा हुआ धन देश हमारे
‘सोने की चिड़िया’ हम अब भी
आओ करें ‘शिकार’ उसी का
जो ‘चिड़िया की घात’ में बैठा
बीच हमारे
‘जाल’ बिछाए
‘दाना डाले’
‘फंसा’ रहा है
‘कैद’ में कर के
‘गला दबा’ के
‘डरा’ रहा है
'उड़ा' जा रहा -उस 'सागर के पार' !! आओ उसको हम दिखला दें
‘ताकत’ अपनी –‘माँ’ की भक्ति
बड़े हमारे ‘लम्बे हाथ’ !
हम ‘शक्ति’ हैं !
‘काली’ भी हम !
गला काटकर
मुंड-माल ले -पहने चाहें !!
‘भैरव’ भी हम
‘रौद्र रूप’ हम धारण करके
‘तांडव’ भी करना जानें
अगर तीसरा- नेत्र
हमारा-शिव हो -शिव हो
‘शिव’ की खातिर
खुला तो कांपेगी -धरती फिर
काँप उठे सारा संसार !!
अगर ‘प्रलय’ ना अब भी चाहो
तो ‘धारा’ के साथ बढ़ो
चूम गगन -फहरा दो ‘झंडा’
आज ‘तिरंगा’
दूषित ‘मन’ का दहन करो !!!
सुरेन्द्र कुमार शुक्ल भरमार ५
८.४.२०११
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