मुस्कान भी अब मेरी
थकने लगी है
मजबूरिया जो इतनी
अब मेरे आलिंगन में॥
थकने लगी है
मजबूरिया जो इतनी
निष्ठुर हो चली है..
अथक प्रयास कर के भी
कोई उम्मीद जगती नही है..
कि तिनका-तिनका हो
चाहते बिखर सी गई है..!!
मुस्कान भी अब मेरी
मायूस होने लगी है..!!
श्वासों की लय, जो
डर डर के चलती है..
कि जाने कोन से पल में
क़यामत छुपी है..
हर आहट में जैसे
तुफानो की सरगोशी है..
टूट गई अब के तो ..
संभलने की ताकत भी नही है..
मुस्कान भी अब मेरी
पथराने लगी है..!!
गहरी नींद से यूँ
हड़बड़ा के उठ जाती हूँ ,,
काली रात में
अपने ही साए से डर जाती हूँ ..
मन रूपी दीपक जलता है..
बिरहन सी तड़प लिए..
बेचैन साँसों के गुबार में
ज्यूँ तन्हाई पलती है..
थक चुकी है वो भी
अब मेरे आलिंगन में॥
कि आँख भी अब मेरी
डब-डबाने लगी है..
मुस्कान भी अब होठों की
फीकी पड़ने लगी है..!!
अनामिका
(अनामिका की सदायें )
7 टिप्पणियाँ:
मन की निराशा की अन्यतम अभिव्यक्ति सुंदर ढ़ंग से हुई है।
भाव तो सभी के मन में होते हैं परन्तु एक उचित व्याकरणीय नियम के तहत कविता होती है....जैसे--
"मुस्कान भी अब मेरी
पथराने लगी है..!!" ---हर बार मुस्कान का ही जिक्र है..
--किसी कार्य के होने पर उसका प्रभाव होता है--
भी का अर्थ है कि अन्य कुछ और भी हुआ है जबकि सिर्फ़ मुस्कान ही सन्दर्भित है हर प्रभाव में....अतः भी शब्द का प्रयोग अटपटा लगता है..
---काल भ्रंश है कि मुस्कान पहले पथरा गई फ़िर फ़ीकी होगई...यह उलटा क्रम है...यह सब ध्यान रखना चाहिये...काव्य में.साहित्य में...
मन रूपी दीपक जलता है..
बिरहन सी तड़प लिए..
बेचैन साँसों के गुबार में
ज्यूँ तन्हाई पलती है..
थक चुकी है वो भी
अब मेरे आलिंगन में॥
Bahut,bahut sundar!
मार्मिक प्रस्तुति
बहुत वेदना भरी है रचना में ! मन की पीड़ा को सशक्त अभिव्यक्ति देती एक मर्मस्पर्शी प्रस्तुति ! बधाई एवं शुभकामनायें !
डॉ. श्याम गुप्ता जी तहे दिल से आभारी हूँ आपकी इस मूल्यवान टिपण्णी के लिए जिसने मुझे कुछ सीखने को दिया. सच कहा आपने मुस्कान के पथराने के बाद फीका पड़ना...उलटे क्रम के साथ साथ साहित्यिक रूप में ठीक नहीं था...जो मेरी लापरवाही का नतीजा है.
आपने जो 'भी ' के प्रयोग की अटपटे लगने की बात कही ..उसके लिए मैं कहना चाहूंगी की लेखक जब कुछ लिखता है तो उस से पहले उसे महसूस करता है और महसूस करने से पहले भी काफी कुछ घटित हो चुका होता है जिसकी भाव भूमि के तहत ये भाव निकल के आते हैं...अर्थात मुस्कान के थकने से पहले हर मजबूरी /दर्द सामना करने पर मुस्कान को होंठो पर खूब सजाया गया...लेकिन दर्द/मर्बूरियां थी कि निष्ठुर हो चली थी...
मजबूरिया जो इतनी
निष्ठुर हो चली है..
अथक प्रयास कर के भी
कोई उम्मीद जगती नही है..
कि तिनका-तिनका हो
चाहते बिखर सी गई है..!!
इतना सब प्रयास करने के बाद अंत में मुस्कान भी ....
का प्रयोग हुआ...
उम्मीद है आप भाव भूमि को समझने के बाद 'भी' के प्रयोग को अटपटा महसूस नहीं करेंगे ...फिर भी अगर में गलत हूँ तो आपके पथ प्रदर्शन की आकांक्षी हूँ.
अन्य पाठकों की भी आभारी हूँ जिन्होंने अपनी टिपण्णी से मेरा उत्साह बढाया.
सादर
अनामिका
--धन्यवाद अनामिका जी....
अर्थ यह निकलता है ----
-(अतः)मुस्कान भी अब मेरी
थकने लगी है ....यह प्रभाव हुआ...शरीर पर किसी अन्य प्रभाव का वर्णन नहीं है...
--(क्योंकि-)-"मजबूरिया जो इतनी
निष्ठुर हो चली है..
अथक प्रयास कर के भी
कोई उम्मीद जगती नही है..
कि तिनका-तिनका हो
चाहते बिखर सी गई है..!!....यह कार्य हुआ..
---इस प्रकार -- (अतः)
मुस्कान मेरी अब थकने लगी है...भी.. गैर जरूरी है...हां.सामान्यतः देखने सुनने में पता नहीं चलता....अतः यह भी चलेगा...
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Thanks for your valuable comment.