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शूर्पणखा काव्य उपन्यास----सर्ग ६- शूर्पणखा--द्वितीय भाग -- -डा श्याम गुप्त...

Written By shyam gupta on शनिवार, 9 अप्रैल 2011 | 8:00 pm



   शूर्पणखा काव्य उपन्यास-- नारी विमर्श पर अगीत विधा खंड काव्य .....रचयिता -डा श्याम गुप्त  
         -- इस सर्ग के प्रथम भाग में शूर्पणखा के मनोभावों व प्रारम्भिक युवा समय का वर्णन के साथ बताया  गया था  की कैसे वह रूपसी अनुचित राह पर अग्रसर हुई | प्रस्तुत द्वितीय भाग में  शूर्पणखा के आत्म-मुग्धता के क्षणों में उसकी मनोदशा को दर्शाया गया है ...... छंद १६ से ३१ तक----
१६-
प्रेम पगी वह सुन्दर रूपसि,
एक कुटिल राक्षसी बन गयी |
सुन्दर पुरुष-नारियां उसके,
खेल-घृणा का पात्र हो गए |
पूर्ण वासना करके अपनी,
दे देती थी मृत्यु सभी को ||
१७-
सुन्दर पुरुष देखकर उसकी,
काम -वासना बढ़ जाती थी |
और लक्ष्य कर सुन्दर नारी,
क्रोध-ईर्ष्या जग जाती थी |
क्रोध-अग्नि व पाप-कर्मों की,
आत्म-ग्लानि में झुलस रही थी ||
१८-
रावण के प्रति क्रोध घृणा से,
अवचेतन में बैर भावना ;
अथवा बदले की इच्छा से,
स्वयं अग्नि में झुलस रही थी |
पश्चाताप-अग्नि में रावण,
जलता रहे ताकि जीवन भर ||
१९-
नहीं रह सकी थी वह स्थिर,
भोग संस्कृति पली बढ़ी थी |
शुद्ध सात्विक आचारों में,
नहीं सिखाया जाता रहना |
कामाचार, स्वच्छंद आचरण-
पर कोई प्रतिबन्ध न होता ||
२०-
सुन्दर पुरुष देखकर उनकी,
काम भावना बढ़ जाती है |
और  तिरोहित  होजाता है,
अनुचित-उचित भाव सब मन से |
पर-उत्तम कुलशील नारियां ,
मन व्रत कर्म से दृढ रहती हैं ||
२१-
यह दायित्व पुरुष का ही है ,
सदा रखे  सम्मान नारि का |
अत्याचार न हो नारी पर,
उचित धर्म व्रत अनुशीलन का,
शास्त्र ज्ञान मिले उनको भी ;
हो समाज स्वस्थ दृढ सुन्दर ||
२२-
स्वर्णमयी लंका नगरी को,
तुरत सैनिकों को भिजवाया |
विविधि रूप सज्जा के उपकरण१,
सिद्ध पुरुष सौन्दर्य कला के ;
वशीकरण की कला निपुण जो,
बुलवाए निज रूप सजाने ||
२३-
सोच रही थी ,रमा व रम्भा,
कहते अति सुन्दर नारी हैं |
पर इस उमंगाते यौवन में ,
संसृति भर का सौन्दर्य भरा |
मेरे जैसी ललाम बाला,
विधि ने न रची होगी कोई ||
२४-
प्रकृति भी झुक झुक जाती है,
छवि निरखि अतुल सौन्दर्य राशि |
मादकता  भी  है  शरमाती,
इन नयनों का मद देख देख |
उन्नत उरोज ,कटि-क्षीण निरखि,
मुनियों के ध्यान छूट जाते ||
२५-
गति से इन पीन नितम्बों की,
कामी पुरुषों का चित डोले ;
यह भूतल भी हिल उठता है |
मेरे इस मन से भी कठोर,
ये  हैं  मेरे  गर्वोन्नत  कुच;
मदिराचल भी शरमा जाता ||
२६-
जाने कितने काम पिपासित,
प्रणयी नर-गन्धर्व, सुर-असुर;
काम-केलि से ध्वस्त  हुए हैं |
सौन्दर्य-गर्वोन्नत सिरों को,
जाने कितनी पत्नियों के-
झुका, मान -मर्दन कर डाला ||
२७-
लोलुप भ्रमरों की बातें क्या,
ललचाते अतुलित शूर वीर |
इस तन की कृपा-प्रणय भिक्षा -
हित, कितने ही पद-दलित हुए |
पर आज मुझे क्यों लगता है,
संगीत फूटता,कण कण से ||
२८-
गुप्त रूप से स्वयं पहुंचकर,
छुप कर देखा शूर्पणखा ने |
नर ये सुन्दर-वीर कौन हैं ,
साथ एक है सुन्दर नारी |
ऋषि जैसे नहीं कोमलांग ये,
नहीं योग्य हैं कठोर तप के ||
२९-
क्या धर कर नर रूप विजन में,
विचर रहे हैं - नर-नारायण |
साथ कौन है सुन्दर नारी ,
किन्तु मुझे क्या, कोई भी हो |
पुरुषोचित सौन्दर्य-शौर्य से,
काम-वासना जाग उठी थी ||
३०-
क्या ये स्वयं कामदेव हैं,
अथवा द्वय अश्विनी-बंधुये|
मधुमय नील-कमल सी शोभा,
बरबस ही छीने जाती है,
सारा संचित प्रेम ह्रदय का ;
यही गुप्त-धन है नारी का ||
३१-
जी करता है, प्रेम सुधारस,
छक करके रस-पान करूँ मैं |
खिल खिल हंसती कुमोदिनी बन,
उन अधरों का मधुपान करूँ |
यायावरी, कुटिल माया तज ,
सुख से जीवन शेष बिताऊँ ||   -----क्रमश :  भाग तीन....

{कुन्जिका--- १= श्रृंगार-प्रसाधन, -मेक-अप का सामान ....२=  मेक अप मेन, प्लास्टिक --सर्जन ...३= लक्ष्मी -जो सौन्दर्य की प्रथम प्रतिमा-प्रतिमान हैं, स्वयं सौन्दर्य, रूप-वैभव-एश्वर्य हैं ...४= रम्भा -स्वर्ग की सर्वश्रेष्ठ -सुन्दरतम कामिनी, नृत्यांगना  अप्सरा ....५=  आदि-विष्णु का मूल ब्रह्म-आत्मा  रूप -- सृष्टि की सर्वश्रेष्ठ, सुन्दरतम  रूप-भावना ...६= देव वैद्य - अश्विनी कुमार, दो भाई-एक मात्र युगल-स्वरुप देव हैं , जो सदैव साथ साथ रहते हैं और कामदेव के समान ही सर्व-सौन्दर्य मय देव हैं | ...७= नारी मन की अगाधता का मूल कारण, ह्रदय मैं वसुधा की भाँति समस्त संसार के लिए  संचित प्रेम ..ही है और यही  उसका गुप्त-धन है जिसे बड़े -बड़े ज्ञानी-ध्यानी भी नहीं  जान पाते हैं ...स्वयं ब्रह्मा भी नहीं ...|
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2 टिप्पणियाँ:

Surendra shukla" Bhramar"5 ने कहा…

यह दायित्व पुरुष का ही है ,
सदा रखे सम्मान नारि का |
अत्याचार न हो नारी पर,
उचित धर्म व्रत अनुशीलन का,
शास्त्र ज्ञान मिले उनको भी ;
हो समाज स्वस्थ दृढ सुन्दर ||
आदरणीय डॉ श्याम गुप्ता जी नमस्कार बहुत सुन्दर रचना श्रृंगार रस और कुछ विलक्षण से समेटी ये शूर्पणनखा काव्य बार बार पढने को करता मन -लेकिन हम आप के एक वाक्य पर आ कर अटक जाते थे
शुद्ध सात्विक आचारों में,
नहीं सिखाया जाता रहना |
बाद में ऊपर की पंक्ति से जोड़ने पर कि भोग संस्कृति पली बढ़ी थी जहाँ आपने पूर्ण विराम लगा दिया था तब बात बनी -
बधाई हो
सुरेन्द्र कुमार शुक्ल भ्रमर५

shyam gupta ने कहा…

धन्यवाद सुरेन्द्र जी...बात बन गयी अच्छा हुआ...भोग सन्स्क्रिति में ( जो रावण कुल की थी)सात्विक आचार-विचार-व्यवहार गौण होजाते हैं, मूल भाव होता है भोग-विलास व सुख.. अत: उनके कुल की सन्तानें उन्ही राहों पर चलने में कोई बुराई नहीं समझ पातीं। आज की स्थिति में भी यही होरहा है...

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