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अरे भई साधो......: खजाने की चाबी लुटेरों को...नहीं...बिल्कुल नहीं

Written By devendra gautam on सोमवार, 11 जुलाई 2011 | 12:50 am

खजाने की चाबी लुटेरों को...नहीं...बिल्कुल नहीं

पद्मनाभस्वामी मंदिर के तहखानों से निकला खज़ाना सामने आने के बाद अब देश के 550 रियासतों, हजारों मंदिरों-मठों, पुराने किलों और रहस्यमयी गुफाओं में कैद अकूत खजानों की और बरबस ध्यान चला जाता है. गनीमत है कि इनके जनहित में उपयोग की संभावनाओं पर विचार करने का जिम्मा उच्चतम न्यायालय ने लिया है. अभी सत्ता में बैठे लोग घोटालों और भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरे होने के कारण आम जनता का विश्वास खो चुके हैं. कई राजघरानों के खजाने सरकार पहले भी ले चुकी है लेकिन उनके उपयोग की कोई जानकारी नहीं है. आमलोगों को इस बात का भरोसा नहीं कि यदि सरकार को खजाने की चाभी सौंप दी जाये तो उसका जनहित में उपयोग होगा ही. पता नहीं उसका कितना हिस्सा मंत्रियों के पेट में समा जायेगा और कितना जनता के कल्याण में खर्च होगा. इस लिहाज से इतिहासकार देवेंद्र हांडा का यह सुझाव व्यावहारिक है कि मंदिरों के मौजूदा ट्रस्ट ही स्कूल, कालेज, अस्पताल और रोजगार का सृजन करने वाली आर्थिक गतिविधियों का संचालन करें. बेहतर होगा कि वे आर्थिक सलाहकारों की नियुक्ति कर इस दिशा में योजनायें बनायें और उन्हें अमली जामा पहनाएं.
इतना तय है कि देश में अभी इतने खजाने हैं कि देश के विकास या जन समस्याओं के निदान के लिए विश्व बैंक या अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष का मुंह ताकने की विवशता नहीं है. अब समस्या धन की नहीं एक ईमानदार और पारदर्शी सरकार की, दूरदर्शी नेताओं की है. ऐसा कोई खजाना अभी ज्ञात नहीं जहां इसकी आपूर्ति हो सके. विदेशी बैंकों में जमा काला धन देश के अन्दर मौजूद खजानों के सामने कुछ भी नहीं है. लेकिन जनहित में उसकी वापसी के प्रति अपनी उदासीनता और वापसी की मांग करने वाले सामाजिक कार्यकर्ताओं के प्रति अपनी क्रूरता के जरिये मौजूदा सरकार ने यह अहसास दिला दिया कि उसकी प्रतिबद्धता किसके साथ है. लिहाजा गुप्त खजानों के प्रति नीति बनाते वक़्त इस बात का ध्यान रखना होगा. किसी खजाने की निगहबानी का जिम्मा लुटेरों के हाथ में देना तो कहीं से भी बुद्धिमानी की बात नहीं होगी. इसपर बहुत गहराई से विचार करने के बाद ही कोई निर्णय लेना उचित होगा.

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1 टिप्पणियाँ:

रविकर ने कहा…

बाँछे खिलती जा रही है गजनवी की |
आँखे खुलती जा रही हैं हम सभी की ||

अंग्रेजों ने कल वहाँ अफ़सोस मनाया,
उनकी बड़ी यही गलती है, तीन सदी की ||

कोहिनूर सरीखे कई काम अंजाम दिए पर
व्यर्थ हुआ जो छोटी-मोटी बड़ी ठगी की ||

उधर गजनवी नरकवास में मुहं को ढापे-
सोचे मन में, सोमनाथ से व्यर्थ घटी की ||

नादिरशाह सरीखे कितने मन के लंगड़े -
उत्तर-भारत की जनता पर चोट बड़ी की |

दक्खिन के मठ-मंदिर का संकल्प तेज था
पाई-पाई संरक्षित कर बात बड़ी की ||

रविकर को विश्वास हुआ कि भारत माता
सारे जग से अच्छी , बातें सोन-चिड़ी की ||



सुन्दर कृति पढवाने के लिए
आपका हृदय से आभार ||
आपको रचना के लिए बधाई ||

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