अभी मीडिया जगत की दो ख़बरें जबरदस्त चर्चा का विषय बनी हैं. पहली खबर है अंतर्राष्ट्रीय मीडिया किंग रुपर्ट मर्डोक के साम्राज्य पर मंडराता संकट और दूसरी हिंदुस्तान टाइम्स इंदौर संस्करण में लिंग परिवर्तन से संबंधित एक अपुष्ट तथ्यों पर आधारित रिपोर्ट को लेकर चिकित्सा जगत में उठा बवाल. इन सबके पीछे दैनिक अख़बारों के बीच बढती प्रतिस्पर्द्धा के कारण आचार संहिता की अनदेखी की प्रवृति है. इस क्रम में एक और गंभीर बात सामने आई की मीडिया हाउसों का नेतृत्व नैतिक दृष्टिकोण से लगातार कमजोर होता जा रहा है. विपरीत परिस्थितियों का मुकाबला करने की जगह वह हार मान लेने या अपनी जिम्मेवारी अपने मातहतों के सर मढने की और अग्रसर होता जा रहा है. रुपर्ट मर्डोक जैसी शख्सियत ने फोन हैकिंग का आरोप लगने के बाद सार्वजानिक क्षमा याचना के बाद अपने बहुप्रसारित अखबार न्यूज ऑफ़ दी वर्ल्ड को बंद कर दिया लेकिन हॉउस ऑफ कॉमंस की मीडिया कमिटी के समक्ष हैकिंग के लिए अखबार की संपादकीय टीम को दोषी बताते हुए स्वयं को इससे पूरी तरह अनभिग्य बताया. अखबारी दुनिया की हल्की जानकारी रखने वाले के गले से भी उनकी बात नीचे नहीं उतर पायेगी. यह सच है कि अख़बार में छपने वाली ख़बरों के संकलन के तौर-तरीके और उनके चयन के लिए पूरी तरह जिम्मेवार उसका संपादक होता है. लेकिन कोई भी रणनीति तय करने और अंजाम देने के पहले वह अखबार के मालिक को विश्वास में जरूर लेता है. मीडिया किंग का यह कहना कि उन्हें कोई जानकारी ही नहीं थी या तो उनकी कायरता का परिचायक है या फिर प्रबंधकीय अक्षमता का. कायरता पूर्ण बयान देकर वे एक झटके में हीरो से जीरो बन गए हैं. यदि उन्होंने यह कहा होता कि अखबार का मालिक होने के नाते जो भी हुआ मैं उसकी नैतिक जिम्मेवारी स्वीकार करता हूं तो कानून के वे भले ही अपराधी होते लेकिन पूरी दुनिया के मीडिया की नज़र में उनका कद बहुत ऊंचा हो जाता. उनका मीडिया साम्राज्य और भी तेज़ी से पुष्पित-पल्लवित होता लेकिन तो उनकी बादशाहत को ताश के पत्तों की तरह भरभराकर ढह जाने से कोई भी नहीं रोक सकता. वे मीडिया कर्मियों और पाठकों की नज़र से गिर चुके हैं. जाहिर है कि यदि निष्पक्षता और निर्भीकता के साथ तथ्यों को उजागर करने तक अखबार की भूमिका सीमित रक्खी जाती तो फोन हैकिंग जैसे गैर कानूनी तिकड़मों को अपनाने की जरूरत नहीं पड़ती. इस तरह के तरीकों का इस्तेमाल प्रतियोगी को पछाड़ कर आगे निकलने और बाज़ार पर अपना वर्चस्व बनाये रखने के लिए किया जाता है. यह सच को हिंग फिटकिरी डालकर तड़का बनाने भर का नहीं बल्कि सनसनी फैलाकर पाठकों को चौंकाते रहने के दुराग्रह का मामला है.
इधर हिंदुस्तान टाइम्स के इंदौर संस्करण में लिंग परिवर्तन से संबंधित एक रिपोर्ट को इतना सनसनीखेज़ बनाकर छापा गया कि चिकत्सा जगत में थुककम-फजीहत की नौबत आ गयी. जेनिटोप्लास्ती के जरिये शल्य चिकित्सा कर एक उभयलिंगी शिशु को लड़की से लड़का बनाया गया था. यह कोई नयी बात नहीं थी. हाल के वर्षों में कई शहरों के आधुनिक अस्पतालों में ऐसे ऑपरेशन सफलता पूर्वक किये जा चुके हैं. यह बॉक्स में दी जाने वाली खबर होती है. लेकिन समस्या यह थी कि उसी दिन प्रतियोगी अखबार डीएनए का इंदौर संस्करण लॉंच होने वाला था और हिंदुस्तान टाइम्स को कोई धमाकेदार खबर देकर उसे चौंका देना था. इसलिए इस खबर को इस रूप में बनाया गया जैसे इंदौर में लिंग परिवर्तन का एक नया अध्याय शुरू हुआ है और यहां के चिकित्सक किसी भी लड़की को लड़का बना देने की तकनीक विकसित कर चुके हैं. चिकित्सा विज्ञानं की दृष्टि में यह असंभव बात थी. पुरुष हारमोन और कम से कम अविकसित लिंग के अभाव में यह संभव ही नहीं है. लिहाज़ा प्रथम पृष्ठ के लीड के रूप में छपी इस खबर को चुनौती दी जाने लगी. जिस चिकित्सक के साक्षात्कार के आधार पर रिपोर्ट तैयार की गयी थी उसने साक्षात्कार लेने वाले पत्रकार से कहा था कि खोजी पत्रकारिता में दिलचस्पी हो तभी पूरी छानबीन के बाद किसी निष्कर्ष पर पहुंचना और उसके बाद ही इसे प्रकाशित करना उचित होगा लेकिन इतनी सब्र कहां थी. डीएनए को चुनौती जो देनी थी. आधी-अधूरी जानकारी के आधार पर बन गयी एक सनसनीखेज़ बिग स्टोरी.जब आलोचना होने लगी तो प्रधान संपादक तक पल्ला झाड़ गए. एक दूसरे के सर पर जिम्मेवारी का ठीकरा फोड़ा जाने लगा. नैतिक साहस का अभाव यहां भी दिखा.
सवाल उठता है कि मीडिया घरानों के बीच अंध प्रतिस्पर्द्धा का यह दौर प्रिंट मीडिया को कहां ले जाएगी. छपे शब्दों की विश्वसनीयता को कितना आघात पहुंचेगी और मूल्यों के प्रति जिम्मेवार पत्रकारिता का युग क्या अब समाप्त मान लेना चाहिए..? कोई आचार संहिता अब शेष नहीं रह जाएगी. कभी पेड़ न्यूज कभी नीरा राडिया जैसे लोगों के साथ घोटाले के तार बुनना ही मीडिया और मीडिया कर्मियों का एकमात्र लक्ष्य रह जायेगा ..?
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