नियम व निति निर्देशिका::: AIBA के सदस्यगण से यह आशा की जाती है कि वह निम्नलिखित नियमों का अक्षरशः पालन करेंगे और यह अनुपालित न करने पर उन्हें तत्काल प्रभाव से AIBA की सदस्यता से निलम्बित किया जा सकता है: *कोई भी सदस्य अपनी पोस्ट/लेख को केवल ड्राफ्ट में ही सेव करेगा/करेगी. *पोस्ट/लेख को किसी भी दशा में पब्लिश नहीं करेगा/करेगी. इन दो नियमों का पालन करना सभी सदस्यों के लिए अनिवार्य है. द्वारा:- ADMIN, AIBA

Home » »

Written By Pallavi saxena on गुरुवार, 14 जुलाई 2011 | 3:34 pm

मनोदशा अर्थात मन की दशा, मन की दशा क्या होती है, यह कहना थोड़ा मुश्किल है। क्यूंकि मन तो चंचल होता है, पल-पल में बदलता रहता है, मन पर काबू पाना बहुत ही मुश्किल बात है। किन्तु नामुमकिन नहीं, परंतु मन की कुछ बातों पर तो आप काबू पा सकते हैं। मगर हर बार, हर बात में मन पर काबू पा सकना या पा लेना यह एक आम इंसान के लिए मुमकिन नहीं और यहाँ मुझे एक गीत की एक लाइन याद आ रही है। जैसा कि आप सभी जानते हैं मेरे हर लेख में कोई न कोई फ़िल्मी गीत जरूर जुड़ जाता है। J पता नहीं क्यूँ जब भी मैं कुछ लिखने जाती हूँ उस पर आधारित कोई न कोई फ़िल्मी गीत मेरे ज़हन में आ ही जाता है।

जीत लो मन को पढ़ कर गीता मन ही हारा तो क्या जीता, तो क्या जीता हरे कृष्ण हरे राम

कहने का मतब यह है कि गीता में भी कहा गया है कि अगर जीवन में सफलता पानी है और मोह माया से छुटकारा पाना है, तो सब से पहले अपने मन को जीत लो फिर सब कुछ तुम्हारे हाथ होगा। अर्थात मन के हारे, हार है और मन के जीते जीत

खैर यह तो थी गीता की बात हम तो बात कर रहे थे, साधारण परिस्थिति में मनोदशा की बात आपने देखा होगा कि जब कभी हम कोई महत्वपूर्ण निर्णय लेने जाते है। तो हमारा मन अकसर दो भागों में बंट जाता है और हमको निर्णय लेनें में बहुत असुविधा महसूस होती है, कि क्या सही है क्या गलत, दिल कुछ और कहता है, दिमाग कुछ और, कहने वाले कहते हैं ऐसे हालात में हमको हमेशा अपने मन की सुनना चाहिए, मगर कुछ लोग यह भी कहते हैं कई बार दिल से लिए फ़ैसले भी गलत हो सकते है क्यूंकि दिल भावनाओं से बंधा होता है और भगवान ने खुद इंसान को दिमाग का दर्जा दिल से ऊपर का दिया है। मगर क्या करें

दिल है कि मानता नहीं

ऐसे ही आपने कई बार यह भी देखा होगा कि जब हम कोई निर्णय लेने वाले होते हैं या लेने के विषय मे हनता से सोच रहे होते है, तो उस विषय के हर बिन्दु पर गौर किया करते हैं कि उस के क्या परिणाम हो सकते है और बहुत सोचने समझने के बाद जब हम किसी नतीजे पर पहुँचते हैं, तो मन मे एक बार आता है, अब जो होगा सो देखा जाएगा और हम फैसला ले डालते है। मगर फिर कुछ दिनों बाद हमको ऐसा क्यूँ लगता है कि काश ऐसा हो पता तो कितना अच्छा होता। मतलब हमको हमारे द्वारा लिए गये निर्णय पर ही मलाल होने लगता है और यह जानते हुये भी कि अब वो निर्णय बदला नहीं जा सकता, पर फिर भी हमारा मन है कि हमको अंदर से एहसास कराता रहता है कि बदल सकता तुम्हारा निर्णय तो शायद ज्यादा अच्छा होता। क्यूँकि कभी-कभी हमारा मन स्वार्थी भी हो जाया करता है।

कुछ दिनों पहले की ही बात है। जब हम ने इंडिया आने के लिए टिकिट बुक की थी, तब सारी स्थिति को देख परख कर कि इतने दिनों में कब कहना रहना संभव हो सकेगा यह सब सोच कर हमने सभी (प्लेन) हवाई जहाज और ट्रेन के टिकिट बुक किये थे। मगर उस के बावजूद भी कुछ दिनों बाद मुझे लगने लगा था, कि काश मैं अपने मायके में थोड़े और ज्यादा दिन रुक पाती तो अच्छा होता, जबकि मुझे खुद पता था कि ऐसा होना संभव नहीं है। तभी तो जो सोच कर निर्णय लिया था वो इसलिए लिया था कि बाद में ऐसा कोई पछतावा न हो, मगर मन का क्या है वो तो कभी पूर्णरूप से संतुष्ट होता ही नहीं, ना कभी हुआ है, और ना ही कभी होगा। इसे ही तो कहते है न मन का स्वार्थी होना J

अब मैं आप को एक और मनोदशा से अवगत करती हूँ। वो है (करेंसी) अर्थात मुद्रा को लेकर उत्पन्न होने वाली मनोदशा आप को शायद पता हो, जब कोई भी इंसान नया-नया इंडिया से यहाँ आता है मतलब केवल यहीं नहीं बल्कि इंडिया से बाहर कभी भी, कहीं भी जाता है, तो उस देश में पैसे को लेकर उसकी मनोदशा क्या होती है। जब भी वो कुछ खरीदने की द्रष्टी से बाजार जाता है, तो पूरे समय उसका दिमाग इस ही उधेड़ बुन में लगा रहता है कि यदि यह चीज यहाँ (1) एक पाउंड की है, तो इंडियन रुपयों के हिसाब से कितने की हुई। फिर चाहे वो चीज उसके लिए कितनी भी साधारण या कितनी भी महत्वपूर्ण क्यूँ न हो, हर छोटी बड़ी चीज में उसका मन इस ही बात को लेकर उलझा रहता है। यहाँ तक की जब कोई और अपनी खरीदी हुई किसी चीज के बारे में बात करें या बताएं, तब भी सामने वाले का दिमाग तुरंत उस चीज के मूल्य को भारतीय रुपयों में बदल कर देखना शुरू कर देता है।

खैर जो लोग यहाँ नए-नए आयें है, उनका ऐसा करना तो समझ में आता है। हम भी किया करते थे, जब हम यहाँ नए-नए आये थे। मगर अब इतने साल गुजर जाने के बाद अब हमको ऐसा कुछ नहीं लगता जो सामान जितने का है, उसे हम यहां की (करेंसी) अर्थात मुद्रा के हिसाब से ही देखते है और लेते है। मगर आश्चर्य तो तब होता है, जब हम उन लोगों को देखते है, जो हम से भी पहले से यहाँ रह रहें हैं, वो लोग आज भी इस उधेड़बुन से नहीं निकल पाये हैं। बल्कि अगर मैं अपनी बात करूँ और सच कहूँ तो मेरे साथ तो अब उल्टा ही हो गया है। अब जब मैं इंडिया आकर कुछ ख़रीदती हूँ तो अब उस चीज के मूल्य को मैं पाउंड की नज़र से देखने लगी हूँ J यह भी तो एक प्रकार की मनोदशा ही है। है ना J

अंतत बस इतना ही कि आज शायद मैं अपने इन अनुभवों से आप सभी को मनोदशा अर्थात मन की दशा का अर्थ समझा पाई हूँ या शायद नहीं भी, मगर मेरे हिसाब से और मेरे विचार से मन की दशा पर आज तक न कोई काबू कर पाया है और न ही कभी कर पाएगा जिस दिन जिस किसी ने भी मन की इस परिस्थिति पर काबू पा लिया उस दिन वो इंसान, इंसान रह कर भगवान बन जाएगा। क्यूंकि इंसान तो भावनाओं से मिलकर बना है और यह भावनाएं ही हैं जो इंसान को जानवर से अलग करती हैं। तो जहां भावनायेँ होगी वहाँ स्वार्थ भी होगा और जहां स्वार्थ होगा वहाँ कभी मन पर काबू किया ही नहीं जा सकेगा। ऐसा मेरा मत है। जय हिन्द....

Share this article :

1 टिप्पणियाँ:

दीपक जैन ने कहा…

शायद आप मेरे से बेहतर बयां कर सकती है क्योकि मेरे पास तो कोई शब्द ही नहीं है

एक टिप्पणी भेजें

Thanks for your valuable comment.