प्रिये !
से परिपूर्ण,
तुम्हारा गौरवमय, महिमामंडित चेहरा,
जब देखता हूँ ; और-
उसकी तेजोमयी दीप्ति को-
सहेज़ता हूँ , तो -
याद आता है वह दिन,
जब, तुम थीं -
कान्तिमयी, तेजोद्दीप्त-
नव यौवन की गरमाहट से भरपूर , किन्तु-
नव कलिका सी -
अनुभवहीन,
सहमी हुई, लजीली -
गुडिया की तरह |
फिर, एक अबूझ पहेली की तरह,
हर बार , तुम्हारे उस -
प्रतिपल, प्रतिदिवस, मास , वर्ष-
के साथ बदलते हुए,
अधिक से अधिक -
महिमा मंडित, कीर्तिदीप्त, सौन्दर्यमय-
होते हुए रूप को देखकर-
अभिभूत होता रहा हूँ |
सौन्दर्य की कितनी विधाएं हैं,
कितनी कृतियाँ हैं-
कितने रूप हैं,
तुम्हारे अंतर में ; जो-
बार बार , हर बार ,
प्रति पल, दिवस, मास, वर्ष -
हर्षानुभूति से उद्वेलित करते रहे हैं ;
मन को,
मेरे मन को
हे सखि ! प्रेयसि, प्रियतमा-
पत्नी, देवी, शक्ति, कामिनी !
तुम अद्भुत हो |
तुम अद्भुत हो ||
3 टिप्पणियाँ:
श्याम जी रचना के मूल भाव बहुत ही सुन्दर -नारी के बिभिन्न रूपों को परिदर्शित करते सम्मानित किया गया-सुन्दरता में चार चाँद लगाया आप ने -अच्छा लगा -बधाई हो
धन्यवाद आप का
शुक्ल भ्रमर ५
आइये कृपया निम्न पर भी अपना सुझाव समर्थन दें
भ्रमर का दर्द और दर्पण
भ्रमर की माधुरी
रस रंग भ्रमर का
बाल झरोखा सत्यम की दुनिया
हे सखि ! प्रेयसि, प्रियतमा-
पत्नी, देवी, शक्ति, कामिनी !
तुम अद्भुत हो |
तुम अद्भुत हो ||
याद आता है वह दिन,
जब, तुम थीं -
कान्तिमयी, तेजोद्दीप्त-
नव यौवन की गरमाहट से भरपूर , किन्तु-
नव कलिका सी -
अनुभवहीन,
सहमी हुई, लजीली -
गुडिया की तरह
बधाई ||
धन्यवाद, भ्रमर जी व रविकर जी...
"वह आदिशक्ति वह प्रकृति नटी,
धर नए रूप नित आती है |"
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